पैनल में मेरे साथ साध्वी भगवती सरस्वती भी थीं. वह मूल रूप से तो अमेरिका की हैं, किंतु आजकल ऋषिकेश में परमार्थ निकेतन में रहती हैं. वह स्वामी चिदानंद सरस्वती की शिष्या हैं. एक दर्शक ने उनसे सवाल पूछा कि शरीर को रोजाना कितने प्रोटीन की जरूरत होती है और मांस के सेवन से कितना प्रोटीन हासिल किया जा सकता है? इसका साध्वी ने जो जवाब दिया, उससे काफी गलतफहमियां दूर हो गईं. इससे पहले मैंने भी कभी नहीं सोचा कि हमें इतने प्रोटीन की जरूरत नहीं होती जितना कि उद्योग जगत द्वारा हमें बताया जाता है. घर पहुंचकर मैंने स्वामी चिदानंद सरस्वती की पुस्तक 'फार योर बाडी, योर माइंड, योर सोल एंड योर प्लेनेट' पढ़ी तो दिमाग के काफी झाले दूर हो गए. हम सब जानते हैं कि प्रोटीन से मांसपेशियां और हड्डियों का विकास होता है. हम यह भी जानते हैं कि जब किशोरावस्था तक शरीर तेजी से बढ़ता है तब इसे अधिक ऊर्जा की जरूरत पड़ती है. नवजात शिशुओं को प्रोटीन की सर्वाधिक जरूरत होती है. फिर भी, नवजात शिशु के लिए सर्वोत्तम आहार क्या है? यह है मां का दूध. और मां के दूध में कितना प्रोटीन होता है? मात्र पांच प्रतिशत! जबकि मांस व डेयरी उद्योग हमें यह विश्वास दिलाना चाहता है कि एक बड़े व्यक्ति को भी ऐसा भोजन करना चाहिए जिसमें अधिक से अधिक प्रोटीन हो. यह बकवास है. यह उनकी मार्केटिंग रणनीति के अलावा कुछ नहीं है. स्वामी चिदानंद सरस्वती की किताब के अनुसार यदि पूर्वाग्रह से मुक्त वैज्ञानिक अनुसंधान पर गौर करें तो इसके द्वारा अनुशंसित प्रोटीन का प्रतिशत मांस व डेयरी उद्योग द्वारा प्रायोजित अनुसंधान केंद्र द्वारा बताई गई मात्रा से काफी कम है. उदाहरण के लिए, अमेरिकन जर्नल आफ क्लिनिकल न्यूट्रिशन रोजाना सेवन किए गए भोजन का 2.5 प्रतिशत प्रोटीन लेने की सिफारिश करता है, जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन की सिफारिश 4.5 प्रतिशत की है. फूड एंड न्यूट्रिशन बोर्ड इस आंकड़े को बढ़ाकर छह प्रतिशत कर देता है. दूसरे, पौधो से मिलने वाले भोजन, जिसमें सब्जियां, खाद्यान्न और फली आदि शामिल हैं; में इतना प्रोटीन होता है जिससे कि हमारी रोजाना की जरूरत पूरी हो जाए. अगर हम संतुलित भोजन करते हैं तो निश्चित तौर पर पर्याप्त मात्रा में प्रोटीन मिल जाता है. प्रोटीन के अच्छे स्त्रोत हैं दालें, सोयाबीन, डेयरी उत्पाद, गिरि और मटर आदि. उदाहरण के लिए दलहन में 29 फीसदी, मटर में 28 प्रतिशत, पालक में 49 प्रतिशत, गोभी में 40 प्रतिशत, फलियों में 12-18 प्रतिशत और यहां तक कि टमाटर में 40 प्रतिशत प्रोटीन पाया जाता है. इसके बाद पुस्तक में कुछ ऐसे सवालों के जवाब दिए गए हैं जो अक्सर उठाए जाते हैं जैसे हम प्रोटीन की रोजमर्रा की जरूरत कैसे पूरी कर सकते हैं? इसके अलावा आयरन, कैल्शियम, विटामिन बी-12 और अन्य तत्वों के संबंध में भी जिज्ञासा शांत की गई है. हमने गोमांस उत्पादन के पारिस्थितिकीय प्रभावों और मांस सेवन की बढ़ती प्रवृत्ति पर भी चर्चा की. उल्लेखनीय है कि औसतन एक अमेरिकी प्रतिवर्ष 125 किलोग्राम मांस का सेवन करता है, चीनी 70 किलोग्राम और भारतीय मात्र 3.5 किलोग्राम. इससे पता चलता है कि मांस उत्पादन के लिए हर साल दुनिया भर में साढ़े पांच हजार करोड़ पशुओं का संहार कर दिया जाता है. दूसरे शब्दों में पृथ्वी पर जितने मनुष्य रहते हैं, उससे दस गुना अधिक जानवरों का हर साल वध कर दिया जाता है. एक किलोग्राम गोमांस के उत्पादन में करीब 16 किलोग्राम अन्न की आवश्यकता पड़ती है. एक साल पहले संसार में खाद्यान्न के संकट के पीछे यही सबसे बड़ा कारण था. धनी और औद्योगिक देशों में लोग चपाती के रूप में खालिस अन्न नहीं खाते. वे पहले पशुओं को खाद्यान्न खिलाते हैं और उसके बाद मांस का सेवन करते हैं. एक किलोग्राम मांस की समग्र उत्पादन प्रक्रिया में करीब 70 हजार लीटर पानी खर्च हो जाता है.
एक बार न्यूजवीक पत्रिका में छपा था कि साढ़े चार सौ किलोग्राम के एक बैल की परवरिश में इतना पानी लग जाता है कि उसमें एक पानी का जहाज चलाया जा सके। एक हैम्बर्गर तैयार करने में वातावरण में 75 किलोग्राम कार्बन डाई आक्साइड घुल जाती है। अगर आप पूरे दिन अपनी कार दौड़ाते हैं तो मात्र तीन किलोग्राम गैस ही निकलेगी। फिर भी, हमें कभी नहीं बताया गया कि औद्योगिक कृषि द्वारा उत्पादित खाद्य पदार्थ हमारे शरीर और पर्यावरण को कितना नुकसान पहुंचा रहे हैं? हमें यह भरोसा दिलाया जाता है कि हम जो भी खा रहे हैं, वह उच्च गुणवत्ता का है. खाद्य पदार्थो का प्रसंस्करण करने वाली कंपनियां हमारे स्वास्थ्य का ध्यान रखती हैं और फिर गुणवत्ता नियंत्रण के लिए नियामक संस्थाएं तो हैं ही. यह सब बकवास है. कृषि उद्योग, खाद्य पदार्थ उद्योग, दवा उद्योग और बीमा उद्योग की आपस में मिलीभगत है. उन्हें एक-दूसरे से फायदा पहुंचता है. कृषि का जितना औद्योगीकरण होगा, जंक फूड की उतनी ही खपत बढ़ेगी. जितना अधिक जंक फूड खाया जाएगा, बीमार पड़ने की आशंका उतनी ही अधिक होगी. इसका फायदा दवा कंपनियों को मिलेगा. और जितना अधिक लोग बीमार पड़ेंगे वे उतना ही महंगा बीमा कराने के लिए तैयार हो जाएंगे. यह कुचक्र चलता रहता है. इसे ही आर्थिक संवृद्धि कहते हैं. मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि सकल घरेलू उत्पाद ऐसी राशि से बढ़ता है जो अधिक से अधिक हाथों से निकलती है. अर्थशास्त्री और नीति निर्माता मासूम लोगों को कितनी आसानी से मूर्ख बना देते हैं.
देविंदर शर्मा
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