नाक्स्लिओं पर रोज़ कोई न कोई ख़बर आती है। इस बार छत्तीसगढ़ के नक्सल राहत शिविर आयी। इसमें रहत शिविर में रहने वालों ने कहा है की उन्हें वहाँ किसी प्रकार की सुविधा नहीं हैं। वहाँ भोजन, बिजली और पानी नहीं है। सरकार ने पुरा इंतजाम किया है फिर भी उनका इस प्रकार से आभाव में रह कर ज़िंदगी गुज़रना समझ नहीं आता।
दो पाटों के बीच पीस रहे आदिवासियो और ग्रामीण की ज़िंदगी हर वक्त संकट में है। सरकार ने उनकी सुरक्षा में कोई कमी नही की है लेकिन उन्हें इस प्रकार से रखा जा रहा है। जैसे उन्होंने कोई गुनाह किया हो। उनका कसूर बस इतना ही है की नक्सलियो ने उनके परिवार के किसी सदस्य की जान ले ली।
मैं किसी का पक्ष नहीं ले रहा हूँ, नक्सलियो का अपना उदेश्य है। सरकार का अपना। लोकतंत्र की परिभाषा उस वक्त बदली नज़र आती है जब किसी गरीब और कमजोर आदमी की शिकायत थानेदार नही सुनता। कुर्सी पर बैठा हर आदमी ख़ुद को मालिक समझता है। एक चपरासी ख़ुद को अपने अफसर से बड़ा समझता है। कलक्टर भले बात कर ले लेकिन उसका चपरासी सीधे मुंह बात नही करता। बिना घुस दिया कोई सरकारी विभाग कोई काम नही करता। सवास्थ्य, बिजली, पुलिस और कोर्ट ये सबसे बदनाम विभागों में से हैं। ऊपर से नीचे तक। लेकिन कोई कुछ नही बोलता, जो बोलता है उसे उठा कर जेल में दाल दिया जाता है। अगर हिंसा का रास्ता अपनाता है तो गोली मार दिया जाता है।
लोकतंत्र में सब को ५ अधिकार प्रदान किए गए हैं लेकिन इसका उपयोग सभी नही कर पातें। नक्सलियो ने कई बेकसुरों को मार दिया जिसे कभी किसी कीमत पर जायज़ नही ठहराया जा सकता। लेकिन जनसेवक जब मालिक बन जातें हैं तो इसे भी जायज़ नहीं कहा जा सकता।
आज़ादी के ६० सालों बाद भी कोई भूखा है, कोई इलाज के बिना मर जाता है, कोई अनपढ़ है तो इसका जिम्मेदार कौन है। हम या आप या हमारा system.
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